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झूठे रथ पर सवार भारत के बच्चे

बच्चे’ एक महत्त्वपूर्ण राष्ट्रीय संपत्ति हैं और राष्ट्र का भविष्य इस बात पर निर्भर करता है कि वहाँ बच्चों का विकास किस प्रकार हो रहा है। प्रगति के लंबे-चौड़े दावों के बावजूद भारत में बच्चों की स्थिति दयनीय बनी हुई है। बहुत से बच्चों को गरीबी और गंभीर सामाजिक-आर्थिक समस्याओं के चलते स्कूल का मुंह देखना नसीब नहीं होता तो कइयों को मजबूरी में स्कूल छोड़ना पड़ता है। देश में फिलहाल एक करोड़ ऐसे बच्चे हैं जो पारिवारिक वजहों से स्कूल में पढ़ाई के साथ-साथ घर का काम करने पर भी मजबूर हैं। कुपोषण पर ताजा सरकारी आंकड़े दिखा रहे है कि भारत में कुपोषण का संकट और गहरा गया है। इस समय देश में 33 लाख से भी ज्यादा बच्चे कुपोषित हैं, जिनमें से आधे से ज्यादा गंभीर रूप से कुपोषित है। इन 33 लाख बच्चों में 17 लाख से भी ज्यादा गंभीर रूप से कुपोषित है, लेकिन महिला एवं बाल विकास विभाग द्वारा अभी तक 9 लाख 30 हज़ार से अधिक बच्चों के गंभीर कुपोषित होने का दावा किया गया। ये आंकड़े 34 राज्यों और केंद्र प्रशासित प्रदेशों के है। राज्यवार सूची में सबसे ऊपर महाराष्ट्र, बिहार और गुजरात का नाम है।                     

भारत में भीख मांगना अपराध की श्रेणी में रखा गया है। फिर देश की सड़कों पर खुलेआम लोगों के सामने इतने सारे हाथ कैसे उम्मीद और ख्वाहिश में फैले रहते हैं? अगर भीख मांगना अपराध है तो बिना किसी तरह की हिचक के सबके सामने यह ‘अपराध’ कैसे चलता रहता है? घोषित अपराध को रोकने वाला हमारा महकमा कहां सो रहा होता है? इन सारी बातों पर बहसें लगातार होती रही है, लेकिन मंच पर सजी राजनीतिक जुबानों पर इनका जिक्र कहीं नहीं आता है, क्योंकि राजनेताओं ने राजनीति का मतलब महज धर्म का बंटवारा और जाति में मतभेद बना रखा है। लेकिन मासूम भिखारी कहिए या ”बाल भिखारी” मुद्दा लाख टके का है। कभी भी उछालिए तो खूब बिकेगा भी। लोग अफसोस भी जताएंगे। कुछ दिन के लिए नजर और नजरिया भी बदलेगा। दानी, धर्मात्मा भी बन जाएंगे। पर, कुछ चाट पकोड़े के पैकेट थमाकर, चंद सिक्के देकर फर्ज को झटक कर सरकार से जोड़ देते है।।                        

एक तरफ गरीबी की चक्की में पिसते लोग हैं तो दूसरी ओर गरीबी को भी एक धंधा बना दिया गया है। इसमें बाकायदा वैसे दलाल शामिल हैं, जो अपहरण करते हैं और बच्चों को भीख मांगने के लिए तैयार करते है। इसमें उन्हें अपंग बनाने से लेकर सभी तरह के अत्याचार शामिल है। जिन बच्चों का अपहरण हो जाता है वे बच्चे कहां जाते है? क्या वे मानव तस्करों और गैरकानूनी अंग व्यापार करने वालों के हत्थे चढ़ जाते है। वर्तमान में भारत देश में कई जगहों पर आर्थिक तंगी के कारण माँ-बाप ही थोड़े पैसों के लिए अपने बच्चों को ऐसे ठेकेदारों के हाथ बेच देते है, जो अपनी सुविधानुसार उनको होटलों, कोठियों तथा अन्य कारखानों आदि में काम पर लगा देते हैं। उन्हीं होटलों, कोठियों और कारखानों के मालिक बच्चों को थोड़ा बहुत खाना देकर मनमाना काम कराते है और घंटों बच्चों की क्षमता के विपरीत या उससे भी अधिक काम कराना, भर पेट भोजन न देना और मन के अनुसार कार्य न होने पर पिटाई, यही बाल मजदूरों का जीवन बन जाता है। इसके अलावा भी काम देने वाला नियोक्ता बच्चों को पटाखे बनाना, कालीन बुनना, वेल्डिंग करना, ताले बनाना, पीतल उद्योग में काम करना, कांच उद्योग, हीरा उद्योग, माचिस, बीड़ी बनाना, कोयले की खानों में, पत्थर खदानों में, सीमेंट उद्योग, दवा उद्योग आदि सभी खतरनाक काम अपनी मर्जी के अनुसार कराते हैं। कई बार श्रम करते-करते बच्चों को यौन शोषण का शिकार भी होना पड़ता है।।                 

आभासी संसार में बिखरी अश्लील सामग्री बचपन को संकट में डाल रही है। बाल यौन शोषण की कुत्सित प्रवृत्ति को जन्म दे रही है। दुनिया भर में बाल यौन शोषण सामग्री का आसानी से आनलाइन उपलब्ध होना मासूमों के प्रति शोषण की सोच को बढ़ावा देने वाला अहम कारण बन गया है। आम नागरिकों से लेकर समाज, सरकार और न्यायिक व्यवस्था तक सभी इस बात को जानते-समझते हैं कि बच्चों से जुड़ी अश्लील सामग्री ने बच्चों के शोषण के मामले बढ़ाए हैं। कुछ समय पहले राजस्थान में पोक्सो अदालत में पांच साल की बच्ची से दुष्कर्म के दोषी को फांसी की सजा सुनाते हुए न्यायाधीश ने इन वारदातों के पीछे नशे और पोर्नोग्राफी को बड़ा कारण बताया था। बच्चे मन के सच्चे अवश्य हो सकते है लेकिन भारतीय लोकतांत्रिक एवं सामाजिक व्यवस्था ने बच्चों पर ढंग से कभी गौर ही नहीं फरमाया।

-बृजमोहन 

 (स्वतंत्र पत्रकार, समालोचक, चिंतक, समीक्षक)

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