राजनीति हमारे जीवन के सभी पक्षों-राजनीति, अर्थव्यवस्था, शिक्षा, स्वास्थ्य, आंतरिक एवं बाह्य सुरक्षा आदि पर निर्णय लेती है, इसलिए उन निर्णयों में यदि हमारे समाज की आधी आबादी-महिलाओं की भागीदारी न हो तो न यह महिलाओं के विकास के हित में है, न ही इन राजनीतिक सभा संगठनों के हित में और न ही संपूर्ण समाज के हित में। दरअसल भारत की संसदीय राजनीति में महिलाओं की न केवल संख्या में भागीदारी सीमित रही है बल्कि सोमित संख्यावाली महिलाओं ने भी सक्रिय सहभागिता कम ही दिखाई है।
महिलाओं पर पुरुष-प्रधानता की मिसाल बिहार की पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी के रूप में देखी जा सकती है जो है तो महिला किंतु राजनीतिक भागीदारी उनके पति लालूप्रसाद यादव की निर्णायात्मकता में सीमित रही है। महिलाओं की चुनावी भागीदारी में उनकी सामाजिक व आर्थिक स्थिति का विशेष प्रभाव होता है। उच्च सामाजिक वर्ग (जाति) व आर्थिक वर्गों की महिलाओं में राजनीतिक भागीदारी अधिक पाई गई, जबकि निम्न सामाजिक-आर्थिक तबके की महिलाओं में यह भागीदारी अत्यधिक कम थी।
हालाँकि पिछले कुछ वर्षों में चुनावों में मतदाता के रूप में महिलाओं की भूमिका बढ़ी है। अनेक राज्यों में हुए विभिन्न चुनावों में महिलाएँ पुरुषों के समान मतदान कर रही हैं, जबकि कई स्थानों पर वे पुरुषों की तुलना में अधिक मतदान कर रही हैं। वास्तविकता के धरातल पर हमें कुछ और ही देखने को मिलती हैं, जहां भारतीय महिलाएं वोट देने तो जाती हैं मगर किसे देना है यह उनके पिता, पुत्र या पति द्वारा पहले से ही तय दिया जाता है। ऐसा सिर्फ इसलिए क्योंकि हमरा समाज, हमारा परिवेश और हमारा कल्चर हमेशा महिलाओं को घरेलू ही समझता रहा है, उन्हें राजनीतिक दृश्टिकोण से बहुत ही नासमझ और अवैचारिक समझा गया है। जबकि बीहड़ गाँव से लेकर बड़े शहरों तक, महिलाओं ने राजनीतिक सशक्तिकरण का कार्य बखूबी निभाया है।
आज हम देखते हैं कि कई राजनीतिक पार्टियां बड़े-बड़े पदों पर महिला प्रत्याशियों को रखे हुए हैं फिर भी उनकी राजनीतिक सक्रियता के बारे में ध्यान से आकलन करते हैं तो समझ आता है कि यह बस दिखावे मात्रा के लिए है। वास्तविकता से इनका कोई लेना-देना नहीं है। सारा निर्णय इनके उच्चाधिकारियों के पास सुरक्षित रहता है। इन महिलाओं का निर्णय बिना बड़े अधिकारियों के आकलन के पास नहीं किया जाता है। यह एक बहुत ही असम्मानजनक बात है। राजनीति ने धर्म की रक्षा करने के नाम पर, जनता की जानमाल की सुरक्षा करने के नाम पर जनता को जमकर शोषण किया है, खून बहाया है। इसलिए राजनीति न केवल सामान्य पुरुषों का बल्कि कठोर और क्रूर व्यवहार रखने वाले पुरुषों का अखाड़ा रही है। इसलिए राजनीति में तुलनात्मक रूप से कोमल स्वभाववाली महिलाओं की भागीदारी संपूर्ण विश्व में कम रही है। न केवल भारत में बल्कि पूरी दुनिया के इतिहास में राजनीति में महिलाओं की सहभागिता अपवादस्वरूप ही रही है। चुनावी राजनीति में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने की मांग के पीछे सिर्फ यही सोच नहीं है कि उनकी मौजूदगी बढ़े बल्कि यह भी है कि राजनीतिक विमर्श में उनकी भागीदारी हो जिसमें अवसरवादिता, लैंगिक भेदभाव और अति-पुरुषवादी विमर्श हावी है। वास्तविक प्रतिनिधित्व का मतलब यह है कि अलग-अलग पृष्ठभूमि वाली महिलाओं को आवाज मिले और इससे राजनीति में नई संवेदना विकसित हो। यह जरूरी है कि लोकतंत्र और नारीवाद के मूल्यों में विश्वास पैदा किया जाए न कि आक्रामक पुरुषवाद और हिंसक सोच का समर्थन किया जाए। नारीवाद के प्रति सिर्फ बात करने से स्थिति नहीं सुधरेगी और न ही इससे रवैये में कोई बदलाव आएगा। महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़ने से रवैये में बदलाव तो आएगा लेकिन डर इसी बात का है कि वही राजनीतिक संस्कृति नहीं मजबूत हो जिसमें राजनीति में बने रहने के लिए पुरुषों की तरह काम करने पर जोर होता है।
-बृजमोहन
(स्वतंत्र पत्रकार, समालोचक, चिंतक, समीक्षक)