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सोचना ही नहीं, अब मानना पड़ेगा कि केवल लैंगिक प्राणी ही नहीं, मानव प्राणी है स्त्रियाँ

किसी घर के इकलौते कमाऊ पूत की मृत्यु के पश्चात उस घर की आर्थिक व्यवस्था को शून्य समझा जाता है। बच्चों और बूढ़े मां – बाप के पालन पोषण की पीड़ा का बखान सार्वजनिक स्थानों पर सद्भावना के साथ किया जाता है। कुछ सार्वजनिक कार्यक्रमों में उक्त परिवार की सहायता का बीड़ा उठाया जाता है। यह परंपरा गलत नहीं है लेकिन इसकी प्रशंसा करना दुनिया की आधी आबादी को विकलांग कर देने वाला कृत्य होगा। आधुनिक युग में सद्भावना राजनीतिक भाषण बाजी तक सीमित रहती है। धनार्जन के लिए सर्वस्व न्योछावर कर बड़ी हस्ती बनने की ख्वाहिश पालने वाले लोग एक एक पैसे का उपयोग सार्थक निवेश के रूप में करते हैं। निराश्रित अथवा एकल महिलाओं के लिए आज का दौर चुनौतीपूर्ण अवश्य है लेकिन आने वाले सुखदाई कल की कल्पना को हकीकत में तब्दील करने का दायित्व शासन एवं समाज का संयुक्त रुप से है।सर्वप्रथम यह मानना पड़ेगा स्त्रियां केवल लैंगिक प्राणी नहीं है, मानव प्राणी है। उनको मां, बहन, बेटी, पत्नी के रूप में मानव प्राणी समझने में कतई बुराई नहीं है। अनेक सरकारी सेवाएं जो महिलाओं के लिए उपयुक्त नहीं समझी जाती है आखिर क्यों? केवल जेंडर भिन्नता के आधार पर!! अगर यही सत्य है तो लानत है ऐसी सामाजिक व्यवस्था पर जिसने पुरुष को अधिनायकवादी होने का तमगा दिया है। हालांकि प्रकृति ने महिलाओं को संतति पैदा करने सहित कई लैंगिक जटिलता का कार्य सौंपा है। नारी शक्ति ने प्रकृति द्वारा सौंपे पर गए कार्य में ममत्व अपनी तरफ से मिला दिया।       

बच्चियों के सशक्तिकरण हेतु चलाई गई सरकारी योजनाओं का लाभ लेने वाला परिवार बच्चियों की पढ़ाई को व्यर्थ मानता है। प्रसिद्ध कहावत है अगर आप एक आदमी को शिक्षित कर रहे हैं तो आप सिर्फ एक आदमी को ही शिक्षित कर रहे हैं पर अगर आप एक महिला को शिक्षित करते हैं तो आने वाली पूरी पीढ़ी शिक्षित करते हैं। आजादी के बाद सन 1950 में जब देश को संविधान मिला तो उसमें स्त्रियों को सुरक्षा, सम्मान और पुरुषों के समान अवसर व अधिकार मिले परंतु अशिक्षा और पुरातनवादी सोच तथा कमजोर सामाजिक ढांचे के कारण नारी जाति अवसरों का पूर्ण रूप से लाभ उठा नहीं पाई। अपने बचपन में वह पिता, जवानी में पति तथा वृद्धावस्था में पुत्र पर निर्भर रही। पति के घर में प्रवेश करने के बाद उसकी अर्थी ही बाहर निकलती रही। इस बात में कोई संशय नहीं है कि नारी अपने जीवन में घर के सीमित दायरे के लिए नहीं बनी है, फिर भी नारी को यह नहीं भूलना चाहिए कि घर ही उनका किला है जिसकी वह अकेली आर्किटेक्ट है। जीवन की हर दौड़ में नारी पुरुषों से किसी भी मायने में कम नहीं है। ज्यादा कुछ नहीं..बस इतना परिवर्तन चाहिए कि भविष्य की नारी किसी की दया का पात्र नहीं बने। इस आर्थिक दौर में महिलाओं की भूमिका को बढ़ाना गौरवशाली कार्य होगा जिसका साक्षी आज की पीढ़ी बनेगी।

-बृजमोहन 

 (स्वतंत्र पत्रकार, समालोचक, चिंतक, समीक्षक)

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