च्चे तो भगवान का रुप होते हैं” अक्सर यह डायलॉग समाज में बच्चों की मासूमियत को प्रकटीकरण के तौर पर हर एक व्यक्ति द्वारा उपयोग में लाया जाता है। वाक्य बिल्कुल सही है, पर शायद इस वाक्य को प्रयोग में लाए जाने का हक आज का समाज को चुका है।
इस देश में राम, रहीम और अल्लाह के नाम पर समाज में हजारों लाखों की संख्या में लोगों ने अपनी जान गवाई। जिसे कुछ धार्मिक संगठनों ने बलिदान की संज्ञा दी। आश्चर्य तब होता है जब केवल आस्था के नाम पर धर्म के ठेकेदार एक इशारे पर लाखों लोगों को रणभूमि में बुला सकते है लेकिन सजीव मासूमियत, बिना किसी लोभ लालच के आज की मतलबी दुनिया को बेइंतहा प्यार देने वाले मासूम बच्चों के हक में खड़ा होना केवल राजनीतिक दलों की मौकापरस्ती का विषय बन गया है। अगर धर्म के ठेकेदार केवल सांप्रदायिकता एवं राम, रहीम, अल्लाह तक की ठेकेदारी करते हैं तो यह इस राष्ट्र के लिए विकटतम परिस्थिति है, क्योंकि इन्हें तो धर्म की परिभाषा तक नहीं पता।
बच्चों के प्रति संवेदनहीन समाज भगवान की परिभाषा भी देशकाल एवं परिस्थिति के हिसाब से तय करता है। कटु है, पर सत्य है कि अपने बच्चे सब के लिए भगवान स्वरूप ही है, लेकिन शारीरिक रूप से अक्षम, निराश्रित बच्चे, अनाथ बच्चे, भीख मांग कर गुजारा करने वाले बच्चे भीखमंगे ही होते हैं। जिनको 1-2 रुपये के छुट्टे सिक्के देकर छुटकारा पाना इस कलयुगी समाज के लिए दान पुण्य का काम होता है। हालांकि बच्चों के प्रति हर एक गलत कृत्य अपराध है लेकिन क्या हमारी संवेदनाएं इतनी मर चुकी है की मूक बधिर, विकलांग, दलित व निराश्रित बच्चों के साथ होने वाले वीभत्स अपराध के खिलाफ भी मौन धारण बनाए रखें। अमूमन यह मान लिया जाता है कि बाल यौन शोषण की घटनाएं केवल नाबालिक बच्चियों के साथ ही होती है जबकि वास्तव में लड़कों के साथ भी शारीरिक मानसिक एवं भावनाओं का शोषण किया जाता है।
5 साल तक के बच्चे बच्चियों के साथ दरिंदो द्वारा की गई शोषण की बड़ी घटनाएं मानव जाति को शर्मसार कर देने वाली है। बाल यौन शोषण की कोई ऐसी कोई परिधि नहीं है जिससे यह अनुमान लगाया जाए कि समाज के एक विशेष तबके के बच्चों को ही इन स्थितियों से गुजरना पड़ता है। फिर भी आमतौर पर जिन परिवारों तक शिक्षा की पहुंच नहीं होती है या वे बच्चे जो अकेलेपन में जीवन व्यतीत करते हैं, जिनकी सामाजिक व्यवस्थाएं जीर्ण अवस्था में होती है या गरीब और बेरोजगारी का दंश झेल रहा है, तो ऐसे में तुलनात्मक रूप से बाल शोषण की संभावनाएं बढ़ जाती है।
समाज में बाल श्रम के लिए मजबूर बच्चों को अक्सर यौन शोषण की परिस्थितियों से गुजरना पड़ता है। बाल विवाह तो बाल यौन शोषण को बढ़ावा देने वाली ऐसी कलियुगी परंपरा बन चुकी है जिसे अशिक्षित समाज मौलिक इजाजत दे चुका है। यौन उत्पीड़न एक क्षणिक घटना नहीं है। बच्चों का भविष्य, उनका आचरण, उनकी जीवनशैली, यहां तक कि समाज के प्रति उनकी सोच ही बदल जाती है। इस वीभत्स घटना के शिकार बच्चे गुस्सैल या चिड़चिड़े हो जाते हैं, डिप्रेशन के शिकार हो जाते हैं, यहां तक कि कुछ बच्चे कुंठा को दबा कर रखते हैं जिनका चरम कई बड़े अपराधों की घटनाओं तक पहुंच जाता है।
बाल यौन शोषण की प्रतिदिन बढ़ती घटनाओं को देखते हुए सरकार द्वारा 2012 में बाल शोषण के खिलाफ बड़ा कानून बनाया गया लेकिन शायद यह कानून एकमात्र हथकंडा नहीं है जो बच्चों की मासूमियत को जिंदा रख सके हमें इससे आगे सोचना होगा।
-बृजमोहन
(स्वतंत्र पत्रकार, समालोचक, चिंतक, समीक्षक)