हम भली-भांति समझते है। इसलिए सहर्ष स्वीकार करने में संकोच भी नहीं करते। परिवारों के टूटने का मैं स्वयं साक्षी रहा हूं। देखते ही देखते परिवार संख्यात्मक रुप से बड़े हो गए, फिर छोटे-छोटे परिवारों में विभाजित हो गए। आर्थिक मजबूरियों ने तहलका इस कदर मचाया कि भाइयों का कुनबा राज्य ही नहीं अपितु देश के विभिन्न शहरों की बाशिंदगी जी रहा है।
मुझे याद है कि एक समय बिगड़ा मूड ताऊजी अथवा चाचा जी के घर जाकर भाइयों बहनों के साथ की गई हसी – ठिठोली से ठीक हो जाता था। अब वह सुखद संयोग न तो दोस्तों के साथ बैठता है और न ही मोहल्ले के परिचितों के साथ। दुखी मन से स्वीकार करता हूं कि वह समय नहीं आएगा। लेकिन वर्तमान में भी अतीत सरीखी खुशियां भरने का विकल्प मौजूद है। बशर्ते, उस विकल्प का सर्वश्रेष्ठ उपयोग आप और हम द्वारा हो। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर प्रचलित एप्लीकेशन व्हाट्सएप पर हमारा “खुशहाल परिवार” के नाम से सृजित ग्रुप ने मेरे बिछुड़न के दर्द को हल्का कर दिया। मुझे अपनों से जोड़ने के लिए मैं इस आधुनिकता का दिल से शुक्रगुजार हूं।
मार्मिक बात कहूंगा, पर सौ आना सत्य है। प्रायः हम गौर करते है कि किसी असाध्य रोग से ग्रसित व्यक्ति, विकलांग व्यक्ति, थर्ड जेंडर या अत्यधिक गरीब लोगों से बाहरी समाज उचित दूरी मेंटेन रखता है। क्योंकि प्रकृति से पीड़ित इन लोगों से हमारी कोई स्वार्थ सिद्धि नहीं होती। सार्वजनिक कार्यक्रमों में इनके प्रवेश पर अक्सर पाबंदियां होती है। जरा सोचिए, आखिरकार ये लोग किस सामाजिकता का हिस्सा बनेंगे? समाज द्वारा प्रदत घाव का मरहम सोशल मीडिया है। इसी प्लेटफॉर्म के माध्यम से ये लोग बड़े-बड़े कार्यक्रमों में हिस्सेदारी लेते है। मनचाहा मनोरंजन का अधिकार भी इस तबके को मिला है। किसी कथन पर टिप्पणी करने का अधिकार भी हासिल हुआ है। क्या यह सुखद एहसास नहीं है??
यह सोशल मीडिया की ही ताकत है कि किसी असहाय की अपील को वरदान बना देती है। बच्चों या असहायों की असाध्य बीमारी के इलाज के लिए कुछ ही घंटों में लाखों रुपए की राशि का जुगाड़ बन जाता है। सामाजिक भलाई के अभियान की सफलता की सर्वाधिक सार्थकता सोशल मीडिया के माध्यम से ही है। बेशक, अधिकांश आबादी व्यापारिक फायदे एवं प्रसिद्धि की चाहत से सोशल मीडिया का प्रयोग जानती है। लेकिन यह भी सोचना होगा कि शिक्षा जगत में मेरिट के विद्यार्थी अथवा खेल जगत में मेडल हासिल करने वाले खिलाड़ी इस आधुनिक प्लेटफार्म पर बेशुमार प्रशंसा के साक्षी बनते है। यह प्रशंसा का पुंज किसी भी क्षेत्र में उपलब्धि हासिल करने वाली हस्ती को चंद घंटों में मिल जाता है। आजकल भारतीयों की राजनीतिक जागरूकता की रफ्तार डिजिटल इंडिया की रफ्तार की प्रतिस्पर्धी बनी हुई है। आम आदमी को स्वयं की अहमियत महसूस होने लगी है। अब सुदूर गांव की चौपाल में अमेरिकी चुनाव की बिसात बिछती है। वैश्विक महाशक्तियों के पक्ष को लेकर भारत का स्टैंड क्या होना चाहिए, इस प्रकार की चर्चाएं आम हो गई है।
आधुनिकता अथवा परिवर्तनशीलता कई अनसुलझे सवालों के साथ दस्तक देती है। लेकिन निर्णय कुल मिलाकर करना हो तो मैं इसके समर्थन में अधिक हूं। टेलीविजन के सीमित चैनलों में अपने पसंद का कार्यक्रम मिल जाना संभव नहीं था। यानी मनोरंजन के लिए भी समझौता। वर्तमान की आधुनिकता यह सिद्ध करती है कि अगर किसी की रूचि अध्यात्म में है तो एक लाइन लिखने मात्र से सैकड़ों कार्यक्रम आपके लिए प्रस्तुत रहते है। आप मनचाहे क्षेत्र में गहराई तक जाकर ज्ञानार्जन कर सकते है। सोशल मीडिया की सार्थकता इसीलिए भी है कि यह पूर्णतया आपकी इच्छा अनुरूप उपलब्ध है। अगर आपको खामियां अधिक नजर आती है तो उपयोग को सीमित या बंद किया जा सकता है। यह थोपी हुई परिवर्तनशीलता नहीं है। संसार को समेटने की ताकत है इसमें। साध्य तक पहुंचने में साधन की भूमिका अप्रत्याशित होती है। कोरोना जैसी वैश्विक महामारी के दौरान चिकित्सकों एवं शासन प्रशासन की गाइडलाइन को आमजन तक पहुंचाने का त्वरित माध्यम साबित हुआ था सोशल मीडिया। निचोड़ की अगर बात करें तो सोशल मीडिया आधुनिकता का परिचय पत्र है। जिसकी सार्थकता प्रत्येक क्षेत्र में है। यह एक ऐसा रिज्यूम है, जिसके होने मात्र से हम संपूर्ण विश्व में मजबूत प्रतिस्पर्धी है।
-बृजमोहन
(स्वतंत्र पत्रकार, समालोचक, चिंतक, समीक्षक)