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न्यायिक इतिहास के पन्नों में न्यायमूर्ति चंद्रचूड़: एलजीबीटीक्यू+  अधिकार से लेकर डिजिटल न्याय तक

मुख्य न्यायाधीश धनंजय यशवंत चंद्रचूड़ के नवंबर 2022 से नवंबर 2024 तक के कार्यकाल को भारतीय न्यायपालिका के सबसे प्रगतिशील दौरों में से एक माना जाता है। उनसे उम्मीदें थीं कि वे व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा करते हुए न्यायिक प्रणाली में व्याप्त चुनौतियों का समाधान करेंगे। न्यायमूर्ति डी.वाई. चंद्रचूड़ ने संविधान के रूपांतकारी उद्देश्य को अपने फैसलों के जरिए साकार करने का प्रयास किया। उनकी अध्यक्षता में सर्वोच्च न्यायालय ने ऐतिहासिक निर्णय दिए, जिनमें नागरिकों की संवैधानिक स्वतंत्रता की पुष्टि, महिला अधिकारों और LGBTQ+ अधिकारों को सुदृढ़ करना, तथा न्यायपालिका में प्रशासनिक सुधार शामिल हैं। हालाँकि, इस अवधि में न्यायालय को राजनीतिक रूप से संवेदनशील मामलों से भी दो-चार होना पड़ा और न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ को सरकार-समर्थक होने जैसी आलोचनाओं का भी सामना करना पड़ा। इस विश्लेषण में उनके प्रमुख फैसलों का संदर्भ सहित मूल्यांकन करते हुए यह समझने का प्रयास किया गया है कि उनकी वास्तविक न्यायिक दृष्टि क्या रही।
न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ के न्यायिक दर्शन की बुनियाद संविधान के अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) का विस्तार करके व्यक्तिगत अधिकारों की रक्षा करना रही है। एक उदाहरण 2017 का के.एस. पुत्तस्वामी बनाम भारत संघ मामला है, जिसमें न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ की पीठ ने निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार घोषित किया। उनके निर्णय में स्पष्ट कहा गया कि निजता, अनुच्छेद 21 में निहित जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की गारंटी से उत्पन्न, संविधान द्वारा संरक्षित अधिकार है। इस ऐतिहासिक फैसले में न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने आपातकाल के दौर के एक विवादास्पद निर्णय (ए.डी.एम. जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ल, 1976) को स्पष्ट रूप से खारिज करते हुए उसकी गलत व्याख्या को दुरुस्त किया। इस निर्णय के पलटने का मतलब है कि इनके लिए न्याय से ऊपर कुछ नहीं है क्योंकि यह निर्णय इनके पिता, जो कि उस समय सीजेआई थे और उस बेंच के अध्यक्ष थे, के विरुद्ध था। निजता को मौलिक अधिकार मानने के इस कदम ने नागरिकों की स्वायत्तता और मानव गरिमा को भारतीय संविधान के केंद्र में स्थापित किया।
इसी तरह, मानव गरिमा और व्यक्तिगत स्वतंत्रता से जुड़े कई अहम फैसले न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने दिए। 2018 में नवतेज सिंह जोहर बनाम भारत संघ मामले में वे उस सर्वसम्मत संविधान पीठ का हिस्सा थे जिसने भारतीय दंड संहिता की धारा 377 (समलैंगिकता को अपराध मानने वाला कानून) को असंवैधानिक घोषित किया। फैसले में उन्होंने जोर देकर कहा कि यह निर्णय औपनिवेशिक कानूनों और वास्तविक संवैधानिक मूल्यों के बीच का संघर्ष था तथा यह समान नागरिकता के अधिकार को स्थापित करता है। न्यायालय ने माना कि जो व्यक्तिगत आचरण किसी अन्य का अहित नहीं करता, उसके आधार पर राज्य नागरिकों की गरिमा का हनन नहीं कर सकता। व्यक्तिगत स्वतंत्रता के संदर्भ में न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने बार-बार रेखांकित किया कि जमानत याचिकाओं पर ढर्रे से इनकार करना व्यक्ति की आजादी को आघात पहुँचाता है। 2020 में उन्होंने पत्रकार अर्णब गोस्वामी को अंतरिम जमानत देते हुए टिप्पणी की थी कि यदि हम व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मामलों में दखल देकर राहत नहीं देंगे, तो फिर हम यहाँ कर क्या रहे हैं ? अपने कार्यकाल में न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने निचली अदालतों द्वारा अनावश्यक गिरफ्तारी और जमानत न देने की प्रवृत्ति को लेकर कड़ी फटकार लगाई और कहा कि न्यायाधीशों को जमानत अर्जियों पर निर्णय में स्वस्थ सामान्य बुद्धि का उपयोग करना चाहिए, बजाय इसके कि वे डरकर फैसले टालें। सुप्रीम कोर्ट ने सैकड़ों लंबित जमानत मामलों का निपटारा कर यह संदेश दिया कि जमानत नियम है, जेल अपवाद। यह संदेश निचली अदालतों तक जाना चाहिए। कुल मिलाकर न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने अनुच्छेद 21 के दायरे को केवल जीवन की रक्षा तक सीमित नहीं रखा बल्कि उसमें गोपनीयता, स्वाभिमानपूर्ण जीवन और व्यक्तिगत चुनाव की स्वतंत्रता जैसे पहलू जोड़कर एक उदार संवैधानिक दृष्टिकोण अपनाया।

न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने न्यायिक मंच से महिला सशक्तिकरण को आगे बढ़ाने वाले कई महत्वपूर्ण फैसले दिए। 2018 में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने जोसेफ शाइन बनाम भारत संघ मामले में 158 वर्ष पुराने व्यभिचार कानून (आईपीसी धारा 497) को सर्वसम्मति से असंवैधानिक ठहराया जिसमें न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ भी शामिल थे। अपने मत में उन्होंने स्पष्ट कहा कि यह कानून स्त्रियों को पति की संपत्ति की तरह मानता है और उनके सम्मान एवं वैयक्तिकता को नष्ट करता है। उन्होंने लिखा कि स्वायत्तता गरिमापूर्ण मानव अस्तित्व का अभिन्न अंग है, और यह कानून महिलाओं को चुनाव करने के अधिकार से वंचित कर देता है। इस फैसले ने पति को स्त्री का स्वामी मानने वाली दकियानूसी धारणा को खारिज करते हुए महिलाओं की शारीरिक स्वतंत्रता और सम्मान की पुष्टि की।
2018 में ही भारतीय युवा वकील संघ बनाम केरल राज्य (सबरीमाला मंदिर प्रवेश) मामले में न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ उस बहुमत का हिस्सा थे जिसने सभी आयु-वर्ग की महिलाओं को केरल के सबरीमाला मंदिर में प्रवेश की अनुमति दी। उन्होंने अपने समवर्ती फैसले में रेखांकित किया कि मासिक धर्म के आधार पर महिलाओं के साथ भेदभाव करना उनके संवैधानिक गरिमा और लिंग समानता के अधिकार का उल्लंघन है। इस ऐतिहासिक निर्णय ने मंदिर प्रवेश पर प्रतिबंध जैसी प्रथाओं को परखा और घोषणा की कि आस्था के नाम पर लैंगिक असमानता स्वीकार्य नहीं है।

महिलाओं के प्रजनन अधिकारों पर एक मील का पत्थर निर्णय 29 सितंबर 2022 को आया, जब सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली पीठ ने अविवाहित महिलाओं को भी 24 सप्ताह तक गर्भपात कराने का वही अधिकार दिया जो विवाहित महिलाओं को प्राप्त था। कोर्ट ने कहा कि अगर कोई अविवाहित महिला 24 सप्ताह तक का गर्भ समापन करना चाहती है, तो उसे विवाहित महिलाओं के बराबर यह अधिकार है। इस निर्णय में यह भी महत्वपूर्ण था कि न्यायालय ने वैवाहिक बलात्कार को भारतीय दंड कानून में भले अपराध न माना गया हो, लेकिन गर्भाधान संबंधी कानून (MTP Act) के तहत पति द्वारा यौन हमला भी बलात्कार की श्रेणी में गिना जाएगा ताकि पीड़ित महिला गर्भपात करा सके। इस प्रगतिशील फैसले को महिलाओं के शरीर पर उनके पूर्ण निर्णय अधिकार (बॉडिली ऑटोनॉमी) की जीत के रूप में देखा गया।

विश्वभर में जब कुछ स्थानों पर गर्भपात अधिकार वापस लिए जा रहे थे, भारत के सुप्रीम कोर्ट का यह रुख बेहद साहसिक और महिला-अधिकारों को मजबूत करने वाला था। इसके अलावा, न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने कार्यस्थल पर लैंगिक समानता संबंधी फैसलों में भी अग्रणी भूमिका निभाई। फरवरी 2020 में, उनकी अध्यक्षता वाली पीठ ने सेक्रेटरी, रक्षा मंत्रालय बनाम बबीता पुनिया मामले में सेना में महिला अधिकारियों को स्थायी कमीशन देने का ऐतिहासिक फैसला सुनाया। इस निर्णय में सशस्त्र बलों में महिलाओं के साथ हो रहे भेदभाव को गलत ठहराते हुए कहा गया कि उन्हें पुरुष अधिकारियों के समान कमान और विकास के अवसर मिलने चाहिए। न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने टिप्पणी की थी कि इस निर्णय को लिखना उनके लिए बेहद संतोषजनक है क्योंकि इसके जरिए महिलाएं राष्ट्र की प्रगति और सुरक्षा में बराबर की भागीदार बन सकेंगी।
इसी तर्ज पर, मार्च 2020 में नौसेना में भी महिला अधिकारियों को स्थायी कमीशन देने का रास्ता सुप्रीम कोर्ट ने खोला – ये सभी कदम देश की सेना और नौकरशाही में विविधता एवं समावेशिता बढ़ाने वाले साबित हुए। सुप्रीम कोर्ट ने महिला सम्मान से जुड़े छोटे-बड़े कई मामलों में हस्तक्षेप कर सकारात्मक संदेश दिए। सितंबर 2023 में न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ की अगुवाई में सुप्रीम कोर्ट ने एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए सरकारी एवं सहायता-प्राप्त स्कूलों में किशोरियों को निःशुल्क सैनिटरी नैपकिन उपलब्ध कराने की राष्ट्रीय नीति बनाने का निर्देश दिया। न्यायालय ने इसे बेहद महत्वपूर्ण मामला बताते हुए केंद्र और राज्यों को मिलकर दो महीने के भीतर एकरूप राष्ट्रीय दिशानिर्देश तैयार करने को कहा। यह कदम किशोरियों के स्वास्थ्य, शिक्षा और गरिमा को सुनिश्चित करने की दिशा में था। इन सब निर्णयों ने मिलकर न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ के कार्यकाल में महिला अधिकारों को संविधानसम्मत मजबूती दी – चाहे वह निजता और सम्मान का मामला हो, प्रजनन चुनाव का अधिकार हो या संस्थानों में समान अवसर का प्रश्न।

न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ को भारतीय न्यायपालिका में LGBTQ+ समुदाय के अधिकारों के सबसे मुखर समर्थकों में गिना जाता है। सितंबर 2018 में आए नवतेज सिंह जोहर बनाम भारत संघ फैसले में शामिल पांच न्यायाधीशों में वे भी थे, जिन्होंने सर्वसम्मति से समलैंगिक यौन संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर करके देश में LGBTQ+ समुदाय को दशकों पुराना कलंक मिटाने में मदद की। न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने अपने संयोजक निर्णय में कहा कि भारतीय समाज को इस समुदाय के प्रति ऐतिहासिक अन्याय के लिए माफी मांगनी चाहिए और संवैधानिक नैतिकता के आधार पर सबको बराबरी का दर्जा देना चाहिए। उन्होंने प्रसिद्ध गायक लियोनार्ड कोहेन के गीत “Democracy” के बोल उद्धृत करते हुए लिखा कि असली लोकतंत्र वह है जो हाशिये पर पड़े लोगों को भी मुख्यधारा में स्थान दे। उनके मुताबिक यह फैसला समान नागरिकता के सिद्धांत को मजबूत करता है, जिससे LGBTQ+ व्यक्तियों को भी वही अधिकार व सम्मान मिले जो अन्य नागरिकों को प्राप्त हैं। सेक्शन 377 को समाप्त करने वाले इस निर्णय ने संविधान के तहत व्यक्तिगत पहचान की गरिमा और प्रेम की स्वतंत्रता को मान्यता देकर भारत को विश्व के प्रगतिशील लोकतंत्रों की पंक्ति में ला खड़ा किया।

2023 में न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ की अध्यक्षता में सुप्रीम कोर्ट की पाँच-सदस्यीय संविधान पीठ ने LGBTQ+ समुदाय के लिए एक और महत्वपूर्ण मामले – समान-लिंग विवाह की मान्यता – पर सुनवाई की। अप्रैल-मई 2023 में दस दिनों तक विस्तृत दलीलें सुनने के बाद 17 अक्टूबर 2023 को अपना फैसला सुनाते हुए न्यायालय ने सर्वसम्मति से कहा कि समलैंगिक जोड़ों को विवाह का मूलभूत अधिकार नहीं है और इस विषय पर कोई भी परिवर्तन करना संसद के अधिकार क्षेत्र में आता है। हालांकि इसी फैसले में न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ और जस्टिस संजय किशन कौल ने नागरिक संघ (Civil Union) को मान्यता देने के पक्ष में अपनी राय व्यक्त की। न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ के अनुसार Special Marriage Act, 1954 में सीधे शब्द जोड़कर न्यायालय समलैंगिक विवाह को मान्यता नहीं दे सकता, परंतु LGBTQ+ जोड़ों के साथ हो रहे भेदभाव को समाप्त करना भी आवश्यक है। अपने अल्पमत में उन्होंने सरकार को ऐसे सिविल यूनियन की रूपरेखा तैयार करने पर विचार करने को कहा जो समलैंगिक साथी को मेडिकल आपातकाल, संपत्ति वारिस, गोद लेने जैसे अधिकार प्रदान कर सके। न्यायालय के सभी पांचों न्यायाधीश एक मत थे कि विवाह का अधिकार संविधान में प्रतिपादित मौलिक अधिकार के रूप में परिभाषित नहीं है परंतु उन्होंने LGBTQ+ समुदाय की मौजूदा कठिनाइयों को भी पहचाना। न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने अपने निर्णय में स्पष्ट किया कि LGBTQ+ व्यक्तियों के साथ किसी भी प्रकार का भेदभाव, चाहे वह कानूनी हो या सामाजिक हो, अस्वीकार्य है। उन्होंने केंद्र सरकार द्वारा गठित एक उच्च-स्तरीय समिति को LGBTQ+ समुदाय के हित में नीतिगत सुधार सुझाने की बात भी रेखांकित की। भले ही इस फैसले में समान-लिंग विवाह को हरी झंडी नहीं मिल सकी, फिर भी न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ की राय ने LGBTQ+ अधिकारों के प्रति न्यायपालिका की सहानुभूति और आगे की राह के संकेत दे दिए। यह भी उल्लेखनीय है कि 2014 के नालसा बनाम भारत संघ फैसले (जिसमें तीसरे लिंग को विधिक मान्यता दी गई) और 2017 के पुत्तस्वामी (निजता अधिकार) फैसले ने पहले ही LGBTQ+ समुदाय के अधिकारों की नींव मजबूत कर दी थी और इन दोनों में भी न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ का योगदान महत्वपूर्ण रहा। पुत्तस्वामी मामले में उन्होंने लिखा था कि यौन रुझान हर व्यक्ति की निजता और गरिमा का अभिन्न हिस्सा है, जिस पर राज्य द्वारा अनुचित दखल स्वीकार्य नहीं। इस तरह अपने पूरे कार्यकाल में सीजेआई चंद्रचूड़ ने LGBTQ+ समुदाय के प्रति संवेदनशील रुख अपनाते हुए संविधान के समता, स्वतंत्रता और गरिमा के सिद्धांतों को आगे बढ़ाया।

न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ के सामने कई राजनीतिक और संवेदनशील मामले भी आए, जिनमें संतुलन स्थापित करना एक चुनौती थी। इनमें प्रमुख हैं – भीमा कोरेगांव एल्गार परिषद मामला, चुनावी बॉन्ड की वैधता, दिल्ली सरकार बनाम उपराज्यपाल अधिकार विवाद, तथा महाराष्ट्र राजनीतिक संकट। इन मामलों में चंद्रचूड़ की भूमिका ने साबित किया कि वे सिद्धांतों पर अडिग रहते हुए भी व्यावहारिक परिणामों का ध्यान रखते थे। भीमा कोरेगांव (एल्गार परिषद) मामला 2018 में पुणे में दलित सम्मेलन के बाद हुई हिंसा और उससे जुड़े 16 एक्टिविस्टों की गिरफ्तारी से संबंधित है। सितंबर 2018 में जब कुछ एक्टिविस्टों ने अपनी गिरफ्तारी को चुनौती देते हुए स्वतंत्र जांच की माँग की, तब सीजेआई दीपक मिश्रा, न्यायमूर्ति ए.एम. खानविलकर और न्यायमूर्ति डी.वाई. चंद्रचूड़ की पीठ ने 2-1 के बहुमत से एसआईटी की याचिका खारिज कर दी थी। न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने उस समय एक ज़ोरदार असहमति दर्ज करवाई। उन्होंने मतभेद करते हुए कहा था कि असहमति लोकतंत्र का सेफ़्टी वाल्व है और महाराष्ट्र पुलिस की भूमिका पर सवाल उठाते हुए स्वतंत्र जांच की वकालत की। यह असहमति उनके न्यायिक साहस का परिचायक बनी, जहाँ उन्होंने अपने वरिष्ठ सहकर्मियों से भिन्न राय रखते हुए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और मानवाधिकारों का पक्ष लिया। आगे चलकर, उनके मुख्य न्यायाधीश बनने के बाद इसी मामले में वर्ष 2022-23 में एक बड़ा मोड़ आया जब पांच वर्षों से जेल में बंद कुछ आरोपियों को अंततः जमानत मिली।

दिसंबर 2023 में सुप्रीम कोर्ट ने एक्टिविस्ट वरनन गोंज़ाल्विस और अरुण फेरेरा को जमानत देते हुए नोट किया कि वे पांच साल से बिना मुकदमे के कैद हैं। हालाँकि यह ज़मानत आदेश जस्टिस अनिरुद्ध बोस व जस्टिस सुधांशु धूलिया की पीठ ने दिया लेकिन इसे न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ की प्रशासनिक पहल माना गया क्योंकि उनके कार्यकाल में इस लंबे समय से अटके मामले को गति मिली। इससे पहले नवंबर 2022 में सुप्रीम कोर्ट ने एक अन्य आरोपी पत्रकार गौतम नवलखा को खराब स्वास्थ्य के आधार पर नज़रबंद (हाउस अरेस्ट) रखने की अनुमति दी थी जो मानवाधिकारों के प्रति न्यायालय की संवेदनशीलता दर्शाता है। कुल मिलाकर, भीमा कोरेगांव मामले में चंद्रचूड़ ने प्रारंभ से ही कानून के दायरे में व्यक्तियों की आज़ादी और निष्पक्ष जांच पर ज़ोर दिया। भले ही 2018 में उनकी राय अल्पमत में रह गई हो, लेकिन आगे चलकर न्यायालय ने उसी दृष्टिकोण को अपनाते हुए अतिदीर्घ कारावास झेल रहे आरोपियों को राहत दी।

चुनावी बॉन्ड का मामले में चुनावी चंदे में पारदर्शिता के लिए दायर याचिकाओं पर लंबे समय से सुनवाई लंबित थी। ये बॉन्ड योजना 2017 में लागू हुई थी, जिसमें दानदाताओं की गोपनीयता रखते हुए राजनीतिक दलों को असीमित चंदा देने की अनुमति थी। इस योजना की आलोचना थी कि इससे कालाधन और गोपनीयता को बढ़ावा मिलता है। न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ की अध्यक्षता में पांच-जज संविधान पीठ ने अंततः फरवरी 2024 में इस पर फैसला सुनाया। 15 फरवरी 2024 को सुप्रीम कोर्ट ने चुनावी बॉन्ड योजना को असंवैधानिक घोषित करते हुए उसे रद्द कर दिया। न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने अपने निर्णय में कहा कि राजनीतिक चंदे से दानदाता को नीति-निर्धारण की मेज़ पर स्थान मिल जाता है और यह गुमनामी नीति-निर्माण को प्रभावित करती है। कोर्ट ने साफ शब्दों में कहा कि यह योजना संविधान के मूलभूत अधिकारों का उल्लंघन है क्योंकि जनता को यह जानने का अधिकार है कि राजनीतिक दलों को पैसा कौन दे रहा है। इस फैसले से भारत में चुनावी वित्त पोषण को पारदर्शी बनाने की दिशा में बड़ा कदम उठा। हालाँकि सर्वोच्च न्यायालय ने बॉन्ड योजना को रद्द जरूर किया, मगर कुछ आलोचकों ने यह इंगित किया कि कोर्ट ने इस दौरान राजनीतिक दलों और कंपनियों के बीच हुए पिछले लेनदेन की जाँच हेतु किसी विशेष जाँच दल का गठन नहीं किया। फिर भी यह निर्णय दिखाता है कि न्यायालय ने सरकार के एक विवादास्पद वित्तीय तंत्र को विधि के मानकों पर कसौटी में कसते हुए निरस्त कर दिया जो न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ के सरकार-समर्थक होने के आरोपों को खारिज करने के लिए पर्याप्त था।

दिल्ली बनाम एलजी मामला में दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (NCT) में प्रशासनिक सेवाओं पर नियंत्रण को लेकर दिल्ली की निर्वाचित सरकार और केंद्र के नियुक्त उपराज्यपाल के बीच लंबे समय से खींचतान रही है। 2018 में पांच-जज पीठ जिसमें न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ भी थे, ने अनुच्छेद 239AA की व्याख्या करते हुए सर्वसम्मति से फैसला दिया था कि दिल्ली के एलजी को शासन के रोजमर्रा के फैसलों में स्वतंत्र निर्णय लेने का अधिकार नहीं, बल्कि उन्हें मंत्रिपरिषद की सलाह और सहायता पर कार्य करना होगा, सिवाय भूमि, पुलिस और सार्वजनिक व्यवस्था जैसे विषयों को छोड़कर। हालांकि सेवाओं (अधिकारियों के तबादले/नियुक्ति) का मसला उस समय स्पष्ट नहीं हो पाया और आगे की सुनवाई लंबित थी। न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ की अध्यक्षता में एक पांच-सदस्यीय संविधान पीठ ने अंततः 11 मई 2023 को इस विवाद का समाधान किया। सुप्रीम कोर्ट ने सर्वसम्मति से निर्णय दिया कि दिल्ली सरकार को प्रशासनिक सेवाओं का नियंत्रण होगा (सिवाय उन सेवा-विषयों को छोड़कर जो विशेष रूप से केंद्र के दायरे में हैं)। इस फैसले में न्यायालय ने संघीय ढाँचे और लोकतंत्र के सिद्धांतों को बल देते हुए कहा कि ब्यूरोक्रेटिक जवाबदेही की श्रृंखला निर्वाचित सरकार से जनता तक जुड़ी है, इसलिए प्रशासनिक सेवाओं पर निर्वाचित सरकार का नियंत्रण होना चाहिए। न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ के शब्दों में में कहा कि सिविल सेवकों को जनता द्वारा चुनी हुई सरकार के प्रति जवाबदेह होना चाहिए अन्यथा जनमत का महत्त्व नगण्य रह जाएगा। केंद्र सरकार ने इस फैसले के तुरंत बाद एक अध्यादेश ला कर इसे निष्प्रभावी करने का प्रयास किया, जो स्वयं सुप्रीम कोर्ट में लंबित है। लेकिन मई 2023 का यह निर्णय चंद्रचूड़ की अध्यक्षता में आया एक ऐसा उदाहरण था, जिसमें उन्होंने संवैधानिक व्याख्या के जरिए राज्य सरकार के अधिकारों की रक्षा की, भले ही केंद्र सरकार इससे अप्रसन्न थी।

महाराष्ट्र राजनीतिक संकट में जून 2022 में महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली महाविकास अघाड़ी सरकार शिवसेना में एकनाथ शिंदे की बगावत के चलते गिर गई। इसके कानूनी पहलुओं – जैसे दल-बदल, विधायक अयोग्यता और राज्यपाल द्वारा विश्वास मत की मांग पर मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा। न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ की अध्यक्षता में पांच-सदस्यीय संविधान पीठ ने इस महत्वपूर्ण मामले में फैसला मई 2023 में सुनाया। इस निर्णय में कोर्ट ने तत्कालीन राज्यपाल भगतसिंह कोश्यारी द्वारा उद्धव ठाकरे सरकार को विश्वास मत के लिए कहने को असंवैधानिक ठहराया और कहा कि केवल पार्टी के आंतरिक असंतोष के आधार पर राज्यपाल को यह कदम नहीं उठाना चाहिए था। न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने राज्यपाल की आलोचना करते हुए कहा कि यह कदम विधायकों को पार्टी तोड़ने के लिए प्रोत्साहित करने जैसा था जो लोकतांत्रिक मूल्यों के विपरीत है। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि अगर उद्धव ठाकरे ने विश्वासमत का सामना किया होता और उनकी सरकार गिराई जाती, तो न्यायालय हस्तक्षेप कर सकता था लेकिन ठाकरे ने बहुमत परीक्षण से पहले ही इस्तीफ़ा दे दिया, इसलिए न्यायालय उन्हें वापस मुख्यमंत्री पद पर बहाल नहीं कर सकता। इस प्रकार, कोर्ट ने सैद्धांतिक रूप से उद्धव ठाकरे के साथ न्याय होने में देरी को स्वीकार करते हुए व्यावहारिक बाध्यता का हवाला दिया। साथ ही अदालत ने विधानसभा अध्यक्ष को आदेश दिया कि शिवसेना के बागी विधायकों की अयोग्यता पर जल्द निर्णय लें (जो एक वर्ष से अधिक समय से लंबित था)। न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ की पीठ के इस संतुलित फैसले में एक ओर राज्यपाल की अनुचित कार्रवाई पर कसकर प्रहार किया गया, वहीं दूसरी ओर न्यायिक मर्यादा के तहत सीमाएं भी मानी गईं कि स्वेच्छा से त्यागपत्र देने के बाद सरकार को पुनर्स्थापित नहीं किया जा सकता। इस प्रकरण पर कुछ राजनीतिक टिप्पणियाँ भी आईं। पूर्व मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने नाराज़गी में यह तक कहा कि न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ न्याय देने की बजाय कमेंटेटर बन गए, उन्हें न्यायाधीश के बजाय कानून के लेक्चरर होना चाहिए था। ठाकरे का मत था कि सुप्रीम कोर्ट ने उनकी सरकार बचाने के लिए पर्याप्त कदम नहीं उठाए। लेकिन न्यायालय ने अपने फैसले में यह दिखाया कि वह कानून और संविधान के दायरे में बंधा है, न कि किसी पक्ष विशेष को सत्ता में बनाये रखने के लिए।

इन संवेदनशील मामलों के अवलोकन से स्पष्ट होता है कि न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने प्रत्येक स्थिति में कानूनी सिद्धांतों को प्राथमिकता दी। भीमा कोरेगांव और चुनावी बॉन्ड पर उन्होंने सरकार के विरुद्ध रुख अपनाने से भी संकोच नहीं किया जबकि दिल्ली और महाराष्ट्र मामलों में उन्होंने सत्ता-संतुलन को साधते हुए लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा का प्रयास किया। यह संतुलन साधना आसान नहीं थी इससे उनकी न्यायिक परिपक्वता का परिचय मिलता है।

न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने अपने कार्यकाल में न्यायालयी प्रशासन के आधुनिकीकरण और सुधारों को भी नई गति दी। वे 2018 से सुप्रीम कोर्ट की ई-समिति के अध्यक्ष थे और डिजिटल न्यायिक प्रणाली के प्रबल समर्थक। उनके सीजेआई बनने तक देश पहले ही COVID-19 महामारी के चलते वर्चुअल सुनवाई व तकनीक के उपयोग की दिशा में बढ़ चुका था, जिसका श्रेय काफी हद तक उनकी दूरदर्शिता को जाता है। सितंबर 2022 में सुप्रीम कोर्ट ने न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ की अगुवाई में पहली बार संविधान पीठ की कार्यवाही का लाइव-स्ट्रीमिंग प्रारंभ किया, जिससे देशभर के नागरिक सीधे महत्वपूर्ण मामलों की सुनवाई देख सकें। चंद्रचूड़ ने इसे न्याय तक सार्वजनिक पहुंच का हिस्सा बताते हुए कहा कि ऑनलाइन सुनवाई की लाइव स्ट्रीमिंग ने वास्तव में हमारे न्यायालयों को आम नागरिकों के दिलों और घरों तक पहुँचा दिया है, और ऐसा ही होना चाहिए। इसके साथ ही उन्होंने तकनीक का प्रयोग करते हुए अलग-अलग क्षेत्रीय भाषाओं में वास्तविक-समय पर सुनवाई की प्रतिलिपि (ट्रांसक्रिप्शन) उपलब्ध कराने की पहल भी की। फरवरी 2023 में सुप्रीम कोर्ट ने न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ के निर्देश पर पहली बार आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस आधारित लाइव-ट्रांसक्रिप्शन की शुरुआत की ताकि बहस का शाब्दिक रिकॉर्ड तुरंत तैयार हो सके और पारदर्शिता बढ़े।

न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने ई-कोर्ट परियोजना को भी तेज़ी से आगे बढ़ाया। उनके कार्यकाल में न्यायालय ने इलेक्ट्रॉनिक फाइलिंग, ऑनलाइन प्रमाणित प्रतियां, और न्यायिक फ़ैसलों के मुफ्त सार्वजनिक पोर्टल को विस्तार दिया। उन्होंने अदालतों को कागज़ रहित बनाने का आह्वान किया जिसके तहत सुप्रीम कोर्ट व कई उच्च न्यायालयों ने रिकॉर्ड डिजिटल करने शुरू किए। एक और अहम सुधार था अनुवाद पहल 2023 में सुप्रीम कोर्ट ने अपने महत्वपूर्ण फ़ैसलों के हिन्दी, तमिल, गुजराती जैसी भाषाओं में अनुवाद जारी करने शुरू किए ताकि गैर-अंग्रेज़ी भाषी आम जन भी फैसलों को समझ सकें। न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने स्पष्ट कहा कि भाषा कभी भी न्याय पाने में बाधा नहीं बननी चाहिए।

न्यायिक विविधता को प्रोत्साहन देने के लिए भी उनके कार्यकाल को याद किया जाएगा। उन्होंने न्यायपालिका में महिला और विविध वर्ग के प्रतिनिधित्व पर जोर दिया। एक सार्वजनिक अवसर पर उन्होंने बताया कि देश के विभिन्न राज्यों की निचली न्यायिक सेवाओं में 50% से अधिक नए भर्ती न्यायाधीश महिलाएं हैं जो कि भारतीय न्यायिक व्यवस्था में एक स्वागतयोग्य बदलाव है। सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम के सदस्य रहते हुए भी उन्होंने उच्च न्यायालयों में योग्य महिला जजों की पदोन्नति का समर्थन किया जिसके परिणामस्वरूप सुप्रीम कोर्ट में एक समय ऐतिहासिक रूप से 3 महिला न्यायाधीश तक रहीं हालाँकि कुल 34 न्यायाधीशों की संरचना में यह संख्या अभी भी कम है। न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने पहली बार कॉलेजियम द्वारा एक खुले तौर पर समलैंगिक वरिष्ठ वकील की न्यायाधीश पद पर सिफारिश करने में भी अहम भूमिका निभाई जो न्यायपालिका में समावेशिता की दिशा में एक कदम था हालांकि उस नियुक्ति पर निर्णय लंबित है। न्यायालय के कामकाज में पारदर्शिता बढ़ाने के लिए भी उन्होंने कई पहल कीं, जैसे कॉलेजियम की बैठक के प्रस्ताव सार्वजनिक करना (जैसे जनवरी 2023 में कॉलेजियम ने सरकार के आपत्ति वाले पत्रों सहित अपनी सिफारिशें वेबसाइट पर प्रकाशित कीं)। इन सब से न्यायपालिका में जनता का विश्वास और भागीदारी बढ़ाने का प्रयास हुआ।

यह भी उल्लेखनीय है कि न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ के कार्यकाल में पहली बार सुप्रीम कोर्ट ने अपने एडमिनिस्ट्रेटिव निर्णयों में बार और बेंच से सुझाव लेने की परंपरा शुरू की। उदाहरण के लिए सर्वोच्च न्यायालय बार एसोसिएशन से चर्चा कर अप्रैल 2023 में वकीलों की सुविधा हेतु मेंशनिंग (तत्काल सुनवाई आवेदन) की प्रक्रिया में सुधार किए गए। सुप्रीम कोर्ट में मामलों की लंबित संख्या को कम करने के लिए उन्होंने प्रत्येक कार्यदिवस में कुछ समय पुरानी तत्पर प्रकरण (मिसलेनियस) निपटाने को निर्धारित किया जिसके फलस्वरूप उनकी अध्यक्षता में हज़ारों मामले निस्तारित हुए। आंकड़ों के अनुसार न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ के सिर्फ एक साल के कार्यकाल में सुप्रीम कोर्ट ने 21,000 से अधिक जमानत/समान याचिकाएँ निपटाईं। यह संख्या अदालत की कार्यक्षमता को दर्शाती है। न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ द्वारा शुरू किए गए ये प्रशासनिक सुधार न्यायपालिका को अधिक लोकप्रिय, सुलभ एवं आधुनिक बनाने की दिशा में मील के पत्थर साबित हुए हैं। इनसे ना सिर्फ़ कोर्ट की कार्यवाही में तेज़ी आई, बल्कि न्यायपालिका की पारदर्शिता और उत्तरदायित्व भी बढ़ा है।

अपने प्रगतिशील रुख और सक्रिय कदमों के बावजूद, न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ आलोचनाओं से अछूते नहीं रहे। कुछ विश्लेषकों और राजनेताओं ने उन्हें कुछ फैसलों को लेकर सरकार-समर्थक (प्रो-एस्टैब्लिश्मेंट) होने का आरोप भी लगाया। उदाहरण के लिए, नवंबर 2019 में अयोध्या राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद भूमि विवाद पर आए सर्वसम्मत फैसले (जिसमें मंदिर निर्माण के लिए भूमि प्रदान की गई) को कुछ हलकों में सरकार या बहुसंख्यक पक्ष के अनुकूल माना गया। इसी तरह अगस्त 2023 में अनुच्छेद 370 हटाने के मामले में सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ (जिसका हिस्सा रहते चंद्रचूड़ ने बहुमत के साथ केंद्र सरकार के कदम को वैध ठहराया) पर भी सरकार के पक्ष में जाने की बात कही गई। इसके अतिरिक्त, कुछ कार्यकर्ताओं ने आलोचना की कि सर्वोच्च न्यायालय ने नागरिक स्वतंत्रताओं से जुड़े कुछ मामलों – जैसे पत्रकारिता पर अंकुश, यूएपीए बंदियों की रिहाई, हिरासत में यातना आदि में तत्परता नहीं दिखाई। भीमा कोरेगांव मामले में ही उमर खालिद जैसे एक्टिविस्ट की ज़मानत याचिका लंबे समय तक लंबित रहने से यह धारणा बनी कि अदालत केवल चुनिंदा मामलों (जैसे अर्नब गोस्वामी) में तेजी दिखाती है। खुद उद्धव ठाकरे ने महाराष्ट्र मामले में विलंब से निर्णय आने पर न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ पर तंज कसते हुए कहा था कि वे न्याय देने की बजाय कमेंट्री करते रहे। सोशल मीडिया पर भी कभी-कभार यह नैरेटिव दिखा कि यदि फैसला सरकार या बहुमत के अनुकूल आया तो कुछ लोग न्यायालय की स्वतंत्रता पर संदेह जताने लगते हैं।

इन आलोचनाओं के प्रत्युत्तर में, न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने सार्वजनिक मंचों पर अपनी निष्पक्षता और न्यायिक मर्यादा को जोरदार तरीके से समझाया। अक्टूबर 2024 में वकीलों के एक सम्मेलन में उन्होंने दो-टूक कहा कि सुप्रीम कोर्ट से यह उम्मीद करना गलत है कि वह संसद में विपक्ष की भूमिका निभाए। उन्होंने समझाया कि न्यायालय जनता के अधिकारों के संरक्षण के लिए है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि वह हर मामले में सरकार विरोधी रुख अपनाए। उन्होंने कहा कि जो लोग किसी मामले में कोर्ट के फैसले की सराहना करते हैं, वही किसी दूसरे मामले में आलोचना शुरू कर देते हैं, यह इस पर निर्भर करता है कि फैसला किसके पक्ष में आया। न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ के मुताबिक न्यायिक आलोचना तथ्य आधारित होनी चाहिए, न कि इस आधार पर कि फैसला सरकार या विपक्ष में गया। उन्होंने स्पष्ट किया कि न्यायालय सबूतों और कानून के आधार पर निर्णय देता है। फैसले की आलोचना उसके कानूनी पहलुओं पर होनी चाहिए, न कि इसपर कि वह किसके हित में है। यह बयान न केवल उनकी न्यायिक दृष्टि की स्वतंत्रता को दर्शाता है, बल्कि समकालीन विमर्श में न्यायपालिका की सही भूमिका पर भी रोशनी डालता है।

दरअसल, न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ऐसे विरले न्यायाधीशों में रहे हैं जिनके कुछ फैसलों को सरकार ने पसंद नहीं किया (निजता, धारा 377, चुनावी बॉन्ड, दिल्ली-विवाद) तो कुछ अन्य को सरकार ने अपने पक्ष में पाया (अयोध्या, 370, आर्थिक नीतियों से जुड़ी याचिकाएं इत्यादि)। इस लिहाज़ से उन्हें किसी एक खेमे में बांधना उचित नहीं। उदाहरणस्वरूप, मई 2023 में दिल्ली सरकार को सेवाओं का नियंत्रण देकर उन्होंने केन्द्रीय सत्ता संतुलन को चुनौती दी, वहीं उसी महीने महाराष्ट्र मामले में कानूनी मर्यादा के कारण उद्धव ठाकरे को बहाल नहीं किया। इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित एक समीक्षा में उनके कार्यकाल को मिश्रित विरासत बताया गया, जहाँ व्यक्तिगत स्वतंत्रता के कई मसलों पर ठोस प्रगतिशील फैसले हुए लेकिन कुछ मोर्चों पर अपेक्षित क्रांति नहीं आ पाई। स्वयं पूर्व न्यायाधीशों और विद्वानों ने उन्हें एक विचारशील, बौद्धिक और उदार न्यायाधीश माना है, हालांकि कुछ ने यह भी जोड़ा कि न्यायपालिका की दीर्घकालिक चुनौतियाँ (मसलन करोड़ों लंबित मुकदमे, अनेक असहाय बंदी बिना मुकदमे जेल में, आदि) इतनी गहरी हैं कि दो वर्षों में उनका पूरी तरह समाधान संभव नहीं था।

कुल मिलाकर, न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ के फैसलों की सूची और उनकी विचारधारा दोनों का ही विश्लेषण करें तो एक संतुलित तस्वीर उभरती है। अगर कहीं उन्हें सरकार के करीब देखा गया, तो कई मौकों पर उन्होंने सरकार को कठघरे में भी खड़ा किया। एक ओर जहां सरकार समर्थक हलकों ने कभी-कभी उन पर न्यायिक सक्रियता (जुडिशियल एक्टिविज़्म) का आरोप लगाया, वहीं आलोचकों ने उलटा उन्हें सरकार का पक्षधर कहा। यह विरोधाभास ही बताता है कि उन्होंने हर मामले में तथ्यों और संविधान को तरजीह दी, ना कि किसी पूर्वाग्रह को। उन्होंने स्वयं अपने कार्यकाल के अंत में कहा था कि सुप्रीम कोर्ट भारत के आम लोगों की समस्याओं का समाधान निकालने के लिए है। हम अपने प्रत्येक फ़ैसले में संविधान की रूपांतकारी शक्ति को साकार करने का प्रयत्न कर रहे हैं। अगर न्यायपालिका पर किसी एक पक्ष का ठप्पा लगने से दोनों पक्ष नाखुश हैं, तो संभवतः न्यायालय सही मार्ग पर है। उनके कार्यकाल का मूल्यांकन भी इसी कसौटी पर होना चाहिए।

न्यायमूर्ति डी.वाई. चंद्रचूड़ का लगभग दो वर्ष का कार्यकाल भारतीय न्यायपालिका के इतिहास में एक प्रगतिशील बदलाव का दौर माना जाएगा। उन्होंने निजता (2017) को मौलिक अधिकार स्थापित करने से लेकर लोकतांत्रिक अधिकारों (दिल्ली 2023) की रक्षा, महिला सम्मान (व्यभिचार 2018, गर्भपात 2022) और LGBTQ+ समानता (धारा 377, 2018) जैसे क्षेत्रों में ऐसे फैसले दिए जो आने वाले दशकों तक मिसाल रहेंगे। अपने निर्णयों में वे कभी संकल्पबद्ध बहुमत तो कभी साहसी अल्पमत के स्वर रहे, लेकिन हर बार उनकी कलम से निकला तर्क संविधान की आत्मा से पोषित था। न्यायिक प्रशासन में डिजिटल सुधार, पारदर्शिता और जनसुलभता बढ़ाकर उन्होंने अदालत की कार्यशैली को 21वीं सदी के अनुरूप ढालने का महत्वपूर्ण कार्य किया। निस्संदेह, उनसे जो अपेक्षाएँ थीं – जैसे कि सारे अंडर-ट्रायल बंदियों की तुरंत रिहाई या न्यायपालिका को पूरी तरह संक्रमणमुक्त कर देना, वे अपेक्षाएँ पूर्णतः वास्तविक नहीं थीं। स्वयं न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने माना कि हर लक्ष्य को प्राप्त करना संभव नहीं, पर न्यायालय को अपनी क्षमताओं और सीमाओं का ज्ञान होते हुए भी अन्याय का जवाब ढूँढते रहना चाहिए। उनकी इसी विनम्र स्वीकारोक्ति में उनकी सफलता का रहस्य भी छिपा है। उन्होंने अपनी प्राथमिक भूमिका एक न्यायाधीश की ही मानी, प्रशासनिक मुखिया की बाद में। इसलिए उनके दौर में फैसले स्वयं बोलते हैं, चाहे सरकार को नापसंद हों या पसंद। न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ के कार्यकाल का समग्र मूल्यांकन यह दिखलाता है कि भारतीय न्यायपालिका ने उनके नेतृत्व में व्यक्तिगत स्वतंत्रता, मानव गरिमा और समावेशिता के अपने संवैधानिक वायदों को काफी हद तक पूरा किया। आलोचनाओं और अत्यधिक आशाओं के बीच संतुलन साधते हुए उन्होंने न्याय का पलड़ा संविधान की ओर झुकाए रखा। जाते-जाते वे न्यायाधीशों, वकीलों और जनता, तीनों को यह संदेश दे गए कि न्यायिक प्रणाली जनता के लिए है, पर उसे निष्पक्ष रहकर कानूनी मर्यादा में ही काम करना होगा। उनके बहुआयामी योगदान के कारण आने वाले समय में भी न्यायालय के निर्णयों में न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ की छाप दिखाई देती रहेगी। 50 वें मुख्य न्यायाधीश के तौर पर उनकी विरासत एक ऐसी न्यायपालिका है जो आधुनिक तो है ही, साथ-साथ भारत के हर नागरिक के अधिकारों की प्रहरी भी है।

-बृजमोहन रामावत
(स्वतंत्र पत्रकार, समालोचक, चिंतक, समीक्षक)

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